भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा हैं- न हि कशिचत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
अर्थात किसी भी क्षण मनुष्य बिना कर्म किए नहीं रह सकता। यानि कि कर्म जीवन की सबसे समर्थ और सार्थक परिभाषा है। हर रोज़ हम जीवन के साथ-साथ कर्म(कार्य) भी करते है। कोई भी क्रिया(कर्म) स्वयं में पाप या पुण्य नहीं होती,इसे यह दरजा उन भावों से मिलता है, जो इसके पीछे सक्रिय है।
Monday, January 25, 2010
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