Thursday, September 30, 2010
Wednesday, September 29, 2010
प्रकृति का सूक्ष्म शरीर अदृश्य हैं। ध्वनि, प्रकाश, चुबंक की किरणें जब किसी के सम्पर्क में आते है तभी अपना बोध कराते हैं। उसी प्रकार अत्यत्न शक्तिशाली लेसर किरणें भी अदृश्य हैं। इसी तरह मनुष्य पशु वर्ग का एक प्राणी हैं, यदि स्थूल रूप से देखा जाए तो मनुष्य एक हाड़-माँस का पुतला ही तो हैं परन्तु उसकी सूक्ष्म क्षमता का कोई ओर-छोर नहीं है। अपनी सूक्ष्मता का ज्ञान होते ही मनुष्य में देवत्व का प्रवेश हो जाता है और उसका सामर्थ्य स्वयं परमात्मा के समतुल्य हो जाता हैं।
Tuesday, September 28, 2010
Monday, September 27, 2010
Friday, September 24, 2010
Thursday, September 23, 2010
हम परमपिता परमेश्वर की संतान है। सृजेता(ईश्वर) मे हमें इस संसार में जन्म दिया है और हमारे भविष्य का सम्पूर्ण भार उन्हीं पर निर्भर हैं। जिस प्रकार माता-पिता हमें जन्म दे हमें हमारे हाल पर भटकने के लिए नहीं छोड़ देते, बल्कि ताउम्र हमसे प्रेम रखते हैं और सदा ही हमारा हित सोचते हैं तो फिर परमपिता जो सर्वश्रेष्ठ पिता हैं वह हमसे विमुख कैसे हो सकते हैं? हमारे जीवन में जो भी अंधकार एवं आभाव हैं वह इसी कारण हैं क्योंकि हम यह भूल जाते हैं कि हम उस परमब्रह्म की इस विराट सृष्टि का एक अंग है जिसकी सुरक्षा एवं देखभाल का सम्पूर्ण दायित्व स्वयं भगवन ने अपने ऊपर ले रखा हैं और यदि हम अपने पंतग रूपी जीवन की डो़र ईश्वर के हाथ छोड़ देगें तो उनका निश्चल प्रेम हमारी नैया को भवसागर पार करा ही देगा ।
Wednesday, September 22, 2010
महान ऋषियों एवम् संतो ने कहा हैं कि मनुष्य जीवन से बहुमूल्य इस संसार में कुछ भी नहीं। जो मनुष्य मानव जीवन की इस गरिमा को नहीं समझते उनके लिए मानव जीवन और पशु-जीवन में कुछ खास अंतर नहीं हैं जिस प्रकार पशुयों में चैतन्यता का आभाव होने के कारण उनके लिए बहुमूल्य पदार्थो की कीमत भी दो कौड़ी की होती हैं, उसी प्रकार अचेतन मनुष्य भी आत्मगरिमा से उदासीन रहते हैं, अपने सभी सामर्थ्यों को कोयला बना हाथ मलते हुए पश्चात्ताप के आँसू लिए इस दुनिया से विदा हो जाते हैं।
अतः यही उचित होगा कि परमात्मा के दिए गए इस महान अनुदान को जैसे-तैसे काटने की अपेक्षा सही अर्थों में मानव जीवन को और श्रेष्ठ एवं गरिमामय बनाया जाए ताकि पीछे पछताना न पड़े।
अतः यही उचित होगा कि परमात्मा के दिए गए इस महान अनुदान को जैसे-तैसे काटने की अपेक्षा सही अर्थों में मानव जीवन को और श्रेष्ठ एवं गरिमामय बनाया जाए ताकि पीछे पछताना न पड़े।
Tuesday, September 21, 2010
मरने से क्या डरना?? यह तो अटल सत्य हैं कि जो आया हैं वह जाएगा अवश्य इसलिए सदैव की मृत्यु के लिए तैयार रहना चाहिए। जिस प्रकार पुराने कपड़े उतार कर नए पहनना एक सुखद अनुभूति है उसी प्रकार जर्जर शरीर को नया जन्म तो लेना ही है। अतः इस शाशवत सच को अपनाने में और यथासमय गले लगाने में ही समझदारी हैं। जीवन के हर दिन को इस प्रकार जिएँ कि यही अंतिम दिन हैं और इसे भरपूर जीना हैं।
Monday, September 20, 2010
Friday, September 17, 2010
यह जग परमात्मा ने बड़ा ही विचित्र बनाया है, इसमें हर तरह के मनुष्य बनाए है, कुछ सुगढ़ है तो कुछ अनगढ़। हमारा सदा ही अपने जीवन में सुगढ़ एवं सुसंस्कृत व्यक्ति ही मिलते रहें ऐसा संभव नहीं क्योंकि यह संसार केवल हमारे लिए नहीं बना हैं और ईश्वर ने तरह-तरह के मनुष्यों के साथ हमें व्यवहार करना आए इस प्रकार का सुनियोजन किया है। इसलिए जीवन में जब भी अनगढो़ से पाला पड़े तो अपने व्यवहार में बदलाव लाना ही उचित हैं क्योंकि ऐसे लोगों से अनावश्यक उदारता बरतना स्वयं को बहुत मंहगा पड़ सकता है इसलिए सदा श्रेष्ठजनो से सदा प्रेरणा लें एवं दुराचारियों से इस प्रकार का व्यवहार रखें जिस प्रकार मनोरोगियों से रखा जाता हैं, न तो क्षमाशील बना जाए और न उपचार प्रक्रिया से मुख विमुख करें। इसी प्रकार अनगढ़ दुराचारियों में भी परिवर्तन लाया जा सकता हैं।
Thursday, September 16, 2010
Peace of mind is a state of mind which can only be acheived by doing good deeds and helping others. The satisfaction that you get by feeding a hungry, giving clothes to a needy is not the same when you feed yourself or wear your clothes. So make your life meaningful by proving to give meaning to someone else's life.
Wednesday, September 15, 2010
मनुष्य की अंतरआत्मा परमात्मा के ही समान सर्वगुण संपन्न हैं,वह इतनी संपन्न हैं कि उसकी संपन्नता में कभी अभाव नहीं हो सकता इसीलिए जब मनुष्य को अंतरंग की संपन्नता का ज्ञान होता हैं तो उसकी समस्त कामनाओ का स्वतः ही अंत हो जाता हैं और मनुष्य के जीवन में मॄगतॄष्णा का अंत हो जाता है, तब मनुष्य की कोई भी इच्छा शेष नहीं रह जाती एवं वह स्वयं में सम्पूर्ण हो जाता हैं।
Tuesday, September 14, 2010
मनुष्य को चाहिए कि हर अवस्था में वह अपनी मानसिक शांति बना कर रखें,चाहे सुख हो या दुख उसे किसी भी अवस्था को अपने मन पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जीवन की डगर ही इस प्रकार की हैं कि सुख-दुख का तो चोली दामन का साथ है, परन्तु सुख-दुख को अपने ऊपर से इस प्रकार गुज़र जाने देना चाहिए कि मानो एक अनजान राहगीर हो,क्योंकि उसे तो चले ही जाना हैं तो उसके लिए मन की शांति क्यों भंग की जाए।
Monday, September 13, 2010
सफलता उन्हीं के हाथ लगती हैं जो एक बार विवेकपूर्वक निर्णय लेने के बाद अपनी सारी शक्तियाँ उस ओर संगठित कर देते है और एक बार विचार कर निश्चय कर लेने पर बार-बार उसे नहीं बदलते,क्योंकि दृढ़ निश्चय ही व्यक्ति के आत्मविश्वास एवं योग्यता की वृद्धि करता हैं। अतः सफलता का मूल मंत्र विवेक से दृढ़ निश्चय कर उस पर अडिग रहना हैं।
Sunday, September 12, 2010
Friday, September 10, 2010
Thursday, September 9, 2010
यदि इच्छाशक्ति प्रबल हो तो संसार में कुछ भी प्राप्त किया जा सकता हैं,प्रबल इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति जिस काम में हाथ डालता हैं वह उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक वह उस काम को पूरा नहीं कर लेता,फिर चाहे मार्ग में कितनी ही असफलताएँ क्यों न आएँ और यही उन्नति एवं सफलता का एकल मार्ग हैं। यह कहना अतिशोयक्ति न होगी कि संसार की समस्त सफलताएँ और आध्यात्मिक स्तर पर भी सफलताएँ उन्हीं को प्राप्त होती हैं जिनमें कड़ी मेहनत और लगन के साथ प्रबल और प्रखर इच्छाशक्ति का समावेश होता है, उनके लिए नामुमकिन ल्वज़ बना ही नहीं हैं।
Wednesday, September 8, 2010
यह सच है कि मानव मस्तिष्क भी मानव जीवन की ही तरह ईश्वर की देन हैं परन्तु दिमाग स्वयं सिद्ध विचार यंत्र नहीं है, इसे सही दिशा में सक्रिय बनाने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता पड़ती हैं। जिस व्यक्ति के विचार ऊँचे,कामनाएँ मंगलकारी एवं संगति साधुता पूर्ण होगीं उसका मस्तिष्क सदा स्वस्थ होगा। हमारा परम कर्तव्य हैं कि हमारा मस्तिष्क सदा कल्याणकारी दिशा में अग्रसर रहें और यह तभी संभव है यदि हमारे कार्य परमार्थ के लिए हों क्योंकि कल्याण का निवास परमार्थ के सिवाय और किसी में नहीं हैं।
Tuesday, September 7, 2010
अच्छे विचार ही सुखद भविष्य के लिए मार्गदर्शक प्रदान करते हैं अतः अपने मन में सदैव कल्याणकारी, पवित्र एवं उत्पादक विचारों को ही स्थान दीजिए,अच्छे विचारो का चितंन एवं मनन कीजिए, अच्छे विचारो वाले व्यक्तियों का संत्सग कीजिए, अच्छा साहित्य जो पवित्र विचार उत्पन्न करें उनका वरण करें और दूषित विचार एक क्षण के लिए भी मस्तिष्क में न आने दें। अच्छे विचारों द्वारा ही सद्चरित्र का निर्माण सम्भव हैं और उत्कृष्ट चरित्र से स्वर्ग, धन-वैभव और सुख सभी कुछ मिलना अवश्यंभावी हैं और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी इसी राह से होकर निकलता हैं।
Monday, September 6, 2010
मनुष्य ही प्रार्थना करते हैं पशु नहीं, इसीलिए जो मनुष्य प्रार्थना नहीं करते वह देखने में तो मनुष्य ज़रूर हैं परन्तु अंदर से पशुओ के ही भांति जड़ और अज्ञानी हैं। प्रार्थना मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही नहीं कर्तव्य भी हैं, प्रार्थना करने से मनुष्य को ईश्वर के प्रेम का असीम आनंद प्राप्त होता है। यदि प्रार्थना करते समय किसी के लिए मन में द्वेष उत्पन्न हो तो प्रार्थना करने से पूर्व उसे क्षमा कर देना चाहिए क्योंकि दूषित मन से की गयी प्रार्थना ईश्वर को स्वीकार नहीं होती। संसार के समस्त प्राणी आपकी तरह ईश्वर के ही पुत्र हैं इसीलिए सबसे प्रेम करो यही सच्ची भक्ति (प्रार्थना) हैं।
Sunday, September 5, 2010
Friday, September 3, 2010
प्रार्थना आत्मा का, मन का भोजन हैं, पूरे दिन भोजन भले ही छूट जाए परन्तु प्रार्थना नहीं छूटनी चाहिए। अपनी दिनर्चया को इस प्रकार ढाले कि दिन के हरेक घंटे में केवल एक मिनट परम पिता को अवश्य स्मरण करें। प्रार्थना करना याचना करना नहीं हैं बल्कि प्रेम से ईश्वर को पुकारना हैं, यही मात्र सच हैं जग में बाकी सब झूठ। प्रार्थना द्वारा ही हम उस सबसे महत्वपूर्ण परम सत्य को प्राप्त कर सकते हैं।
Thursday, September 2, 2010
दूसरों की अपेक्षा अपने को हीन मानना परले दरजे की बेवकूफ़ी नहीं तो और क्या हैं, ईश्वर की क्या यह कृपा कम हैं कि आपको सुर-दुर्लभ कर्मयोनि यानि मनुष्य का जन्म प्राप्त हुआ है, परमात्मा ने स्वयं अपनी चेतना का अंश दे आपको चैतन्य बनाया है, इच्छाओ,अंकाक्षाओं का प्रसाद प्रदान किया, बुद्धि,विवेक एवं शारीरिक बल दिया और चेतना से परिपूर्ण मन दिया हैं जिनका सदुपयोग करके मनुष्य महामानव बन सकता हैं और मृत्यु को परास्त कर अमर बन सकता हैं।
Wednesday, September 1, 2010
मनोबल इंसान का प्रधान बल हैं जिसके बिना किसी भी श्रेत्र में प्रगति करना नामुमकिन है, क्योंकि जिस व्यक्ति में मनोबल की कमी हैं वह निर्बल हैं और निर्बल व्यक्ति भी पापी की ही तरह सुख से जीने का अधिकारी नहीं इसीलिए सर्वप्रथम शक्ति का संचय करो तभी अपना एवं समाज का हित संभव होगा। श्रुति में भी कहा गया हैं "बलमुपास्व" अर्थात बल की उपासना करो तभी पाप की वृद्धि से बच पाओगे।
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