Wednesday, July 21, 2010

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा हैं कि "आत्मा की आत्मा का बंधु और आत्मा ही आत्मा का शत्रु हैं"अर्थात हम स्वयं ही अपने मित्र और स्वयं ही अपने शत्रु हैं,कोई दूसरा हमारा मित्र या शत्रु नहीं हैं, जितना ही हम अपने अंदर के परमतत्व के अनुकूल होते जाएँगे, उतना ही हमारा जगत के प्रति और जगत का हमारे प्रति मित्र भाव बढ़ता जाएगा और जितना ही हम इसकी विपरीत दिशा में आचरण करेगें उतना ही शत्रु भाव बढ़ता चला जाएगा। अंहकार और भौतिक जगत में उसी की भांति हो जाना दुःखो का मूल कारण हैं, यदि सुख पाना हो तो आध्यत्म भावना से आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का सच्चा प्रयत्न कीजिए।

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